Interstitial Lung Disease
(इंटरस्टीशियल लंग डिजीज)
इंटरस्टीशियल लंग डिजीज, लक्षण, उपचार इन हिन्दी या इंटरस्टीशियल लंग क्या होता है?
कई बीमारियों का समूह है इंटरस्टीशियल लंग डिजीज। उपचार और आहार-विहार को अपनाकर पाया जा सकता है इसमें नियंत्रण...
इंटरस्टीशियल लंग डिजीज (आई.एल.डी.) दो सौ से अधिक रोगों के समूह को नाम दिया गया है, क्योंकि
यह सभी क्लिनिकल, रेडियोलॉजिकल और पैथोलॉजिकल विशेषताओं को साझा करती हैं। इंटरस्टीशियल लंग
डिजीज में थकावट, सूखी खांसी और सांस फूलने जैसे लक्षण पाए जाते हैं। इसमें चेस्ट एक्सरे में फेफड़े में धब्बे
तथा लंग फंक्शन टेस्ट में फेफड़े की कार्य क्षमता कम दिखाई देती है। इंटरस्टीशियल लंग डिजीज के निदान
में मरीज के लक्षणों की जानकारी, शारीरिक परीक्षण, चेस्ट एक्सरे, सीटी स्कैन तथा फेफड़ों की कार्य क्षमता देखी
जाती है।
दो भागों में बंटी होती हैं बीमारियां:
इंटरस्टीशियल लंग डिजीज़ को दो भागों में बांटा गया है। एक वे, जिनमें कोई न कोई कारण का पता चलता है(जैसे पर्यावरणीय एवं औद्योगिक
प्रदूषण, ऊतक रोग आदि) और
दूसरा जिसमें विस्तारपूर्वक जांच के
बाद भी कारण का पता नहीं चलता
है। पहले समूह को नॉन आई.पी.
एफ. इंटरस्टीशियल लंग डिजीज
(आई.एल.डी.) तथा दूसरे को
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
(आई.पी.एफ.) कहते हैं।
लगातार बढ़ रही संख्या : भारत में
आई.एल.डी. के रोगियों की संख्या
लगातार बढ़ रही है। धूमपान, वायु
प्रदूषण तथा ऐसे व्यवसाय जिनमें धूल
व धुआं अधिक मात्रा में निकलता हो,
के कारण बीमारी बढ़ रही हैं। इसके
साथ ही कबूतर व कुछ अन्य पशु-
पक्षियों के साथ रहना व कूलर का
इस्तेमाल करना भी इसमें शामिल है।
ज्ञात नहीं हैं कारणः इडियोपैथिक
पल्मोनरी फाइब्रोसिस में बिना किसी
ज्ञात कारण के फेफड़े में फाइब्रोसिस
(फेफड़े की सिकुड़न) हो जाती है।'
धीरे-धीरे फेफड़ों का आकार छोटा
हो जाता है और सूखी खांसी आती है।
बीमारी बढ़ने पर फेफड़े की संरचना
मधुमक्खी के छत्ते जैसी हो जाती है।
लक्षणों में है काफी समानता: टीबी,
अस्थमा और फेफड़े की फाइब्रोसिस के
लक्षणों में बहुत समानता है। इसलिए
इसमें आपस में अंतर कर पाना
चिकित्सकों के लिए भी कठिन होता है।
चिकित्सक रोगी से विस्तृत जानकारी
प्राप्त करके इन बीमारियों की पहचान
कर सकते हैं। इडियोपैथिक पल्मोनरी
फाइब्रोसिस के अधिकतर मरीज उम्र
में 40 वर्ष से अधिक के होते हैं और
उनमें सांस फूलने की तकलीफ बीमारी
के साथ धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, जो
कि अस्थमा रोगसे विपरीत है। अस्थमा
के मरीज ज्यादातर कम उम्र के होते हैं
तथा लगातार सांस फूलने के बजाय
इन मरीजों में कभी-कभी सांस फूलती
है। दूसरी तरफ टीबी के मुख्य लक्षणों
में बुखार, खांसी, बलगम, बलगम में
खून आना आदि शामिल है। पल्मोनरी
फंक्शन टेस्ट (पी.एफ.टी.) के जरिए
दमा और फेफड़े की फाइब्रोसिस में
अंतर आसानी से किया जा सकता है।
फेफड़े की फाइब्रोसिस के सही परीक्षण
के लिए फेफड़े का सी.टी. स्कैन भी
कराया जाता है। अपने देश में एक्सरे
के हर धब्बे को टीबी समझा जाता है,
जबकि ऐसा है नहीं।
फेफड़े का ट्रांसप्लांट है अंतिम
विकल्पः ऐसे मरीजों में अचानक
सांस बढ़ जाने पर एंटीबायोटिक का
कुछ दिन का कोर्स दिया जा सकता है।
इसके अलावा धूमपान का सेवन बंद
करना, धूल, धुएं से दूर रहना, योग,
प्राणायाम करना, समय-समय पर
टीकाकरण करवाना तथा लंबे समय
तक ऑक्सीजन देना भी लाभकारी
पाया गया है। गंभीर स्थिति में फेफड़े
का प्रत्यारोपण एक मात्र विकल्प रह
जाता है। अच्छी बात यह है कि फेफड़े
का प्रत्यारोपण (लंग ट्रांसप्लांट) अब
भारत में भी कई केंद्रों पर होने लगा है।
सावधानी है बचाव
कुछ सावधानियों को अपना
कर हम इस बीमारी पर नियंत्रण
पा सकते हैं। विश्व स्तर पर
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
के मरीज, इंटरस्टीशियल
लंग डिजीज के कुल रोगियों
के 30 फीसद होते हैं, जबकि
भारतीय इंटरस्टीशियललंग
डिजीज रजिस्ट्री के अनुसार
इंटरस्टीशियल लंग डिजीज के कुल
मामलों में इडियोपैथिक पल्मोनरी
फाइब्रोसिस 13 फीसद पाया गया है।
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
के लक्षणों में सूखी खांसी, सांस लेने
में तकलीफ, भूख न लगना और
थकान शामिल है और ये लक्षण टीबी
और अस्थमा में भी पाए जाते हैं।
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