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2022-03-29

पिंपल्स - muhase ka ilaj, muhase kaise Hataye ya Saaf Karane, Tarika, Vidhi, Illaj, Upchar, Chhutkara

चेहरे (फ़ेस) मुंहासे दाग धब्बे खत्म या दूर करने का तरीका, इलाज व उपचार छुटकारा?



हामोस में असंतुलन, गलत जीवनशैली या कुछ अन्य कारणों से चेहरे पर एक्ने होना आम बात है, मगर इनको उचित देखभाल में नजर अंदाजी पोछे छोड़ जाती है इनके दाग, जो कर देते हैं चेहरा बेजान...

मुंहासे क्यों होते हैं ?


चेहरे पर मुंहासे होने का अर्थ है कि आपका शरीर यह संकेत दे रहा है कि आपकी दिनचर्या या खानपान की शैली में कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता है। इसके अलावा हामोस में आने वाले बदलाव भी इस प्रक्रिया को तेज कर देते हैं। इससे ज्यादा परेशानी का सबब बनते हैं एक्ने के बाद होने वाले दाग-धब्बे। ये दाग तब होते हैं, जब कोई मुंहासा त्वचा के भीतर गहराई तक पहुंच जाता है और भीतर के टिश्यू को नुकसान पहुंचाता है। इसीलिए हर प्रकार के दाग-धब्बे के उपचार का अलग असर होता है और कुछ उपचार अन्य के मुकाबले खास प्रकार के धब्बों पर ज्यादा प्रभावी होते है। इनका सही उपचार करवाकर ही इन्हें पूरी तरह समाप्त किया जाना चाहिए। जब शरीर में किसी चोट की वजह से अधिक मात्रा में कोलेजन बनने लगता है तो आइस पिक जैसे परेशान करने वाले स्कार्स बन सकते हैं। आइस पिक स्कार्स त्वचा में बहत गहरे तक जगह बना चुके छिद्र होते हैं, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि त्वचा एक आइस पिक के साथ पंक्चर की गई है। इसके उपचार में पंच नामक एक छोटे उपकरण से स्कार को काटना और उसकी वजह से बने छिद्र पर टांके लगाना शामिल होता है, लेकिन यह सिर्फ अकेले आइस पिक स्कार्स पर ही काम करता है। अगर कई आइस

रेडियोफ्रीक्वेसी एनजी


पिक स्कार्स हों तो एक्ने स्कार उपचार डिवाइरों जिनमें रेडियोफ्रीक्वेसी एनजी का इस्तेमाल होता है तो ये अच्छा विकल्प साबित होता है। ये उपचार त्वचा के भीतर कोलेजन बनाने में मदद करते है। यह कोलेजन स्कार्सको भीतर से भरने में मदद करता है। लेजर, रेडियोफ्रीक्वेंसी या एक अल्ट्रासाउंड डिवाइस से ऊर्जा आधारित स्किन रिसफेसिंग ट्रीटमेंट काम में आ सकता है, क्योंकि ये सभी त्वचा के भीतर कोलेजन बनाने का काम करते हैं। दाग-धब्बे के विस्तार, रासायनिक पील्स के आधार पर उपचारों की श्रृंखला की जरूरत होती है, जो उसे फैलने से रोकने में मदद करते हैं। इनमें से किसी भी प्रक्रिया के बाद रेटीनॉयड क्रीम का इस्तेमाल करने से कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है और कोलेजन में भी इजाफा होता है।

फ्रैक्शनल नॉन एब्लेटिव लेजर


फ्रैक्शनल नॉन एब्लेटिव लेजर नई तकनीक है और पुरानी लेजर तकनीक के मुकाबले इसमें कम समय लगता है साथ ही इसके परिणाम भी अच्छे आते हैं। पुराने एब्लेटिव लेजर्स में त्वचा की बाहरी सतह नष्ट हो जाती है, जिसे ठीक होने में समय अधिक लगता है, लेकिन ये नॉन एब्लेटिव लेजर्स फ्रक्सेल की तरह होते हैं, जो त्वचा की बाहरी सतह से होकर गुजरता है और बिना नुकसान पहुँचाये गहरे टिश्यू को गरमाहट देता है और कोलेजन को रोलिंग स्कास को प्लेटलेट रिच प्लाज्मा (पीआरपी) के साथ  माइक्रोनीडिलिंग के बाद माइक्रोफैट इंजेक्शन के साथ ठीक किया जा सकता है, माइक्रोनीडिलिग से त्वचा पर छोटे धाव हो जाते हैं। इसके बाद शरीर की प्राकृतिक, नियत्रित सुधार प्रक्रिया शुरू होती है जिससे आतरिक तौर पर कोलेजन बनने शुरू हो जाते है। माइक्रोनीडिलिंग भी एक महत्वपूर्ण एक्ने स्कार उपचार है, क्योंकि यह त्वचा के भीतर चैनलों को खोलते हैं, जो पीआरपी सुधार करने वाले कारकों को आपके रक्त और त्वचा की देखभाल करने वाले उत्पादों को त्वचा के भीतरी सतह तक पहुंचने का मौका देते हैं जहां इनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है।

हाइपरपिगमेंटेशन से एक्ने


स्कार्स का उपचार हाइड्रोक्विनोन और सनब्लॉक के साथ होता है।
हाइड्रोक्विनोन एक टॉपिकल ब्लीचिंग एजेंट होता है, जिसका इस्तेमाल आप सीधे गहरे धब्बे पर कर सकते हैं। सनब्लॉक महत्वपूर्ण है, क्योंकि सूरज की रोशनी में हाइपरपिगमेंटेशन खराब हो सकता है। अन्य लोकप्रिय उपचारों
में ग्लाइकोलिक एसिड क्रीम शामिल है,जो त्वचा पर गहरे धब्बों की बाहरी
सतह को खत्म करती है। कई बार कई प्रकार के उपचारों की जरूरत होती है और यह आपके शरीर की प्राकृतिक सुधार प्रक्रिया पर भी निर्भर करता है।

2021-08-05

mirgi bimari ka ilaj | mirgi se chutkara kaise paye | mirgi ke jhatke ka ilaj | mirgi rog ka ilaaj | mirgi treatment in hindi

मिर्गी और उपचार के बारे मे जानकारी या मिर्गी बीमारी का इलाज क्या है?

मिर्गी और उसके उपचार

राष्ट्रीय मिर्गी दिवस (17 नवंबर) के लिए इस वर्ष की थीम रही 'आइए मिर्गी के बारे में बात करें।' जानते हैं इस बीमारी के आधुनिक उपचार के बारे में...



मिर्गी हर आयु के बच्चों को प्रभावित कर सकती है। हालांकि यह एक सामान्य विकार है, जो संपूर्ण जनसंख्या के एक फीसद बच्चों में पाया जाता है। अभी भी मिर्गी के बारे में बहुत सारे मिथक बने हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप बच्चों को उचित उपचार नहीं मिल पाता है। बच्चों में मिर्गी प्रमुख रूप से एक वर्ष की आयु तथा किशोरावस्था में दिखाई देने वाली बीमारी है। बचपन में मिर्गी के दौरे विभिन्न प्रकार के होते हैं। जिसमें कुछ लक्षण न दिखाई देने वाले तथा कुछ में कंपकपाहट व सिहरन की समस्या हो सकती है।

भारत में इसके होने के दो प्रमुख कारण हैं, जिनमें एक आनुवांशिक व दूसरा मस्तिष्क की चोट होता है। इस बीमारी के बारे में आज भी जागरूकता का अभाव है। इसका बुरा पहलू यह है कि आज भी इसके रोगी को लोग उपेक्षा की नजर से देखते हैं, जबकि अब तो दवाओं के साथ ही मिर्गी की सर्जरी का विकल्प भी मौजूद है, जिससे पीड़ित बच्चा, सामान्य बच्चों की तरह जीवन व्यतीत कर सकता है।


सर्जरी का विकल्प है मौजूदः


हालांकि ऐसा नहीं है कि कुछ फीसद बच्चे जिनकी मिर्गी दवाओं से नियंत्रित नहीं होती है, उनके लिए संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। ऐसे रोगियों के लिए मिर्गी की सर्जरी, न्यूरोमॉड्यूलेशन सर्जरी और कीटोजेनिक आहार जैसे विभिन्न प्रकार के उपचार उपलब्ध हैं। इनमें मिर्गी की सर्जरी सबसे बेहतर विकल्प है, क्योंकि यह सफल रोगनिवारक है। इससे रोगी के पूरी तरह ठीक होने की संभावना रहती है।


हर उम्र में कारगर :


मिर्गी की सर्जरी किसी भी उम्र में की जा सकती है। यह देश के चुनिंदा मिर्गी केंद्रों में उपलब्ध है। इस सर्जरी को करने से पहले रोगी को कुछ विशिष्ट व निश्चित चरणों से गुजारा जाता है। इसके पहले चरण में रोग का मूल्यांकन किया जाता है और इसी के साथ वीडियो ईईजी और विशेष एमआरआई स्कैन जैसे परीक्षण किए जाते हैं। कुछ मरीजों में पीईटी और एसपीईसीटी स्कैन भी किए जाते हैं। इन सभी जांचों से रोग के बारे में सटीक जानकारी मिल जाती है। चिकित्सक सर्जरी की सलाह तभी देते हैं, जब वे सुनिश्चत कर लेते हैं कि बच्चा इससे ठीक हो जाएगा या नहीं।

कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं :


अच्छी बात यह है कि मिर्गी की सर्जरी के दुष्परिणाम बहुत कम होते हैं। न्यूरोमाड्यूलेशन सर्जरी में रोगी के सीने या गर्दन की वेगसतंत्रिका के आसपास अथवा दिमाग में एक डिवाइस इंसर्ट कर दी जाती है। ये डिवाइस संकेत भेजती है, जिससे रोगी मिर्गी के दौरों पर नियंत्रण पा लेता है और दवाओं की जरूरत खत्म हो जाती है।


ये बच्चे भी होते हैं मेधावी



लगभग 70-80 फीसद मिर्गी का उपचार मिर्गी रोधी दवाओं के जरिए किया जाता है। बालपन में मिर्गी के अधिकतर मामलों में चिकित्सक कुछ वर्षों के बाद दवाओं को बंद कर देते हैं, क्योंकि मिर्गी के लक्षण एक उम्र तक ही सीमित होते हैं। ऐसा नहीं है कि इस बीमारी से ग्रसित बच्चे अन्य बच्चों जैसी गतिविधियां जैसे स्कूल जाना, खेलना, पढ़ना और पिकनिक नहीं कर सकते हैं। सच तो यह है कि इससे ग्रसित बच्चे भी मेधावी हो सकते हैं और अन्य बच्चों की तरह सफल करियर बना सकते हैं।

2021-07-21

corona hone ke bad ke lakshan | covid ke baad ke lakshan | corona hone ke bad side effects | corona theek hone ke bad

Corona Se Thik Hone Ke Baad Side Effects Or Corona Virus Ke Baad Hone Wali Bimari 


Corona Thik Hone Ke Baad Ke Lakshan 



कोरोना संक्रमण से ठीक होने के बाद लोगों को कमजोरी, सांस फूलना, पैरों में सूजन, थकान और नींद न आने की समस्या हो रही है। दो से तीन माह में ये लक्षण समाप्त हो जाते हैं लेकिन अगर इस तरह की परेशानी बनी रहे तो चिकित्सकीय परामर्श जरूर लें...



कोरोना से ठीक होने के बाद भी लोगों को कई तरह की समस्याएं हो रही हैं। इनमें सबसे आम है थकान, कमजोरी और नींद नहीं आना। लोगों में कोरोना संक्रमण से उबरने के दो से तीन महीने तक इस तरह की तकलीफ देखने को मिल रही है। हालांकि पहली लहर की अपेक्षा दूसरी लहर में इस तरह के मामले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं।
संक्रमित होने के बाद जिन लोगों को इस तरह की परेशानी हो रही है, वे घबराएं नहीं, क्योंकि अधिसंख्य मामलों में धीरे-धीरे इस तरह की परेशानी अपने आप ही समाप्त हो जाती है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वे पोषक आहार लें, हल्का व्यायाम और योग करें। हां, सतर्कता रखना बेहद जरूरी है। यदि कुछ भी असामान्य लगता है।
चिकित्सक से परामर्श जरूर करें। इसके अलावा यदि छाती में दर्द, सांस फूलना और पैरों में सूजन हो तो इसे भी गंभीरता से लें। ये समस्याएं खून का थक्का जमने की वजह से होती हैं। खून का थक्का किसी भी अंग में पहुंचकर नुकसान पहुंचा सकता है। ये थक्का फेफड़े, हार्ट और ब्रेन में पहुंचकर खून की आपूर्ति रोकता है, जो
जानलेवा साबित होता है। कोरोना संक्रमण के बाद लकवा और हार्ट अटैक के भी खूब मामले प्रकाश में आ रहे हैं। कई बार खून का थक्का इस तरह का अवरोध पैदा करता है कि पैरों में गैंगरीन (खून की सप्लाई नहीं होने से वह हिस्सा खराब होना) और आंखों की रोशनी जाने का खतरा हो सकता है। हालांकि इसमें उन लोगों को ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है, जो कोरोना संक्रमण के चलते गंभीर स्थिति में पहुंचे हों।


म्यूकरमायकोसिस से भी रहें सतर्क :


कोरोना से ठीक होने के बाद म्यूकरमायकोसिस के मरीज मिल रहे हैं। यह बीमारी उन लोगों को ज्यादा होती
है, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है। यह सिर्फ परिकल्पना है कि कोरोना के दौरान जिन्हें स्टेरायड दिया गया उन्हें यह बीमारी हुई।
म्यूकरमायकोसिस का असर नाक, आंख और ब्रेन में होता है, लेकिन कई बार यह संक्रमण फेफड़ों में भी पहुंच जाता है, जो बहुत दुर्लभ माना जाता है। एंटीफंगल इंजेक्शन और सर्जरी से ज्यादातर मरीजों में यह बीमारी ठीक हो जाती है। नाक बंद होना, चेहरे में सूजन, आंखें लाल होना और नाक से काला पानी आने की समस्या हो तो तत्काल चिकित्सक को दिखाएं।


किसी बीमारी से पीड़ित रहे हैं और कोरोना
हुआ है तो ज्यादा सतर्क रहें :


जिन मरीजों को पहले से कोई बीमारी थी और कोरोना की चपेट में आ गए तो उन्हें चाहिए कि पुरानी बीमारी की कोई भी दवा चिकित्सक की सलाह के बिना बंद न करें और न ही दवा का डोज खुद से बढ़ाएं।
जिन लोगों के फेफड़े पहले से खराब है, दिल की बीमारी है या फिर दूसरी तकलीफ है, उन्हें दोसरा कोरोना होने पर ज्यादा परेशानी हो सकती है। इन्हें कोरोना से बचने के सारे उपाय अपनाते हुए वैक्सीन जरूर लगवानी चाहिए। फेफड़े की बीमारी वाले मरीजों को पहले भी एंफ्लूएंजा और निमोनिया से बचाव के लिए न्यूमोकोकल वैक्सीन लगाई जाती थी और अब इसमें कोरोना से बचाव का टीका भी शामिल हो गया है।


सही हो खानपान और दिनचर्या :



कोरोना से उबर चुके मरीजों को अपनी दिनचर्या सुव्यवस्थित रखनी चाहिए।अधिक तेल- मसाले वाले खाने से परहेज करें और घर में बनी चीजों को प्राथमिकता दें दिन में दो लीटर पानी अवश्य पिएं। वही खाना खाएंजो आसानी से पच जाए। नियमित रूप से हल्के व्यायाम करें।दो-तीन महीने ऐसे व्यायाम न करें, जिनमें अधिक मेहनत लगती है।

कोरोना संक्रमित होने के बाद लोगों को नींद नहीं आने की भी समस्या हो रही है:


 यदि लगातार यह समस्य बनी रहे तो मनोचिकित्सक को दिखाएं। अच्छी नींद के लिए जरूरी है कि शाम के बाद चाय-काफीन लें। सोने के एक घंटे पहले टीवी, कंप्यूटर या मोबाइल स्क्रीन से दूरी बना लें।


शुगर का स्तर नियंत्रित रखें :


डायबिटीज के मरीजों में कोरोना होने पर गंभीर होने का
खतरा ज्यादा रहता है। कोरोना संक्रमण के बाद
वे मरीज गंभीर स्थिति में आए, जिनका शुगर
का स्तर नियंत्रित नहीं रहा है। इन्हें यही सलाह
है कि दवाएं नियमित लें। कोरोना संक्रमण के
दौरान स्टेरायड दिए जाने की वजह से भी कुछ
मरीजों का शुगर का स्तर बढ़ता है, लेकिन एक-
दो महीने में अपने आप ठीक भी हो जाता है।
कोरोना संक्रमितों में देखा गया कि कुछ लोग
ऐसे भी थे, जो डायबिटीज की पूर्व अवस्था
(प्रीडायबिटिक) में थे। ये स्टेरायड दिए जाने से
डायबिटीज मरीज की श्रेणी में आ गए।


मास्क अवश्य लगाएं :


मास्क का प्रयोग अनिवार्य रूप से करें। अस्पताल या भीड़ वाली जगह में जा रहे हैं तो एन-95 मास्क का प्रयोग करें। सामान्य भीड़ वाली जगह में सर्जिकल मास्क से भी काम चला सकते हैं। कपड़े का मास्क प्रयोग करें तो दोहरा मास्क लगाएं।

कोरोना से ठीक होने के दो महीने बाद लगवाएं टीका



संक्रमित होने के बाद लोगों के मन में यह सवाल बार-बार आता है कि वैक्सीन लगवाई जाए या नहीं। ऐसे लोगों को चाहिए कि कम से कम दो माह तक वैक्सीन न लगवाएं।ध्यान रहे कि आप डायबिटीज या हाई ब्लडप्रशेर जैसी किसी भी बीमारी से पीड़ित क्यों न हों, वैक्सीन जरूर लगवाएं। ऐसी कोई बीमारी नहीं है जिसमें टीका लगवाने से मना किया गया हो। कोरोना से संक्रमित लोग पाजिटिव आने के दिन से कम से कम दो महीने बाद टीका लगवाएं। जिन्हें पहला डोज लगने के बाद कोरोना हुआ है चे भी यही करें। टीका लगवाने के पहले यह देख लें कि बुखार, स्वाद या गंध नहीं आने समेत कोरोना के कोई लक्षण तो नहीं हैं। यदि ऐसा है तो कोरोना की जांच कराने के बाद रिपोर्ट निगेटिव आने परही वैक्सीन लगवाएं।

2021-07-19

corona janch kab karna chahiye | corona janch type | corona janch kaise kare | corona ki janch kaise karaye aur kaise pata kare

कोरोना की जांच कैसे होगी या कोरोना की जांच कब करनी चाहिए




कोविड या पोस्ट कोविड मरीजों के आंतरिक अंगों की क्या स्थिति है? सूजन या रक्त साव का खतरा तो नहीं  है?
ब्लॉकेज अथवा स्ट्रोक का खतरा तो नहीं है?क्या कोविड का उपचार पा रहे मरीजों की समय रहते जरुरी जांचें कराई जार ही हैं? ऐसे कई सवाल जुड़े हैं कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की सेहत के साथ। जानें देश के बड़े अस्पतालों और विशेषज्ञों के हिसाब से क्या है जमीनी स्थिति...



 कोरोना की जांच क्यू जरूरी है? अगर आप पहले से संक्रमण के दायरे मे है तो,,,


इंदौर निवासी 32 वर्षीय रोहित जैन (परिवर्तित नाम) कोरोना संक्रमित पाए गए। आठ दिन अस्पताल में भर्ती रहे। अगली रिपोर्ट नेगेटिव आई। डिस्चार्ज होकर घर लौटे ही थे कि हालत फिर बिगड़ने लगी। दोबारा अस्पताल ले जाकर जांच कराई तो छाती का सीटी स्कैन कराने पर पता चला कि फेफड़े में बहुत संक्रमण है। दो दिन में उनकी मौत हो गई। ऐसे अनेक मामले सामने आ रहे हैं, जहां स्थिति का समय पर व सटीक अनुमान नहीं लगा पाने के कारण देर हो गई। समय रहते निदान और उपचार इससे बचने का एकमात्र उपाय है।


भारी न पड़ जाए लापरवाही:


कोरोना के निदान और उपचार में प्रारंभिक अवस्था से ही तमाम आशंकाओं और संभावित खतरों पर बारीकी से नजर रखी जाए तो प्रत्येक मौत को टाला जा सकता है। संक्रमण मुक्त हो जाने के बाद भी इस बात को सुनिश्चित कर लेना आवश्यक है कि शरीर के अंदर सब ठीक है कि नहीं? क्योंकि जरा सी भी चूक भारी पड़ सकती है। ऐसे तमाम टेस्ट उपलब्ध हैं, जिन्हें आसानी से कराया जा सकता है और जो महंगे भी नहीं हैं। किंतु फिलहाल जांच की जगह लक्षणों के आधार पर उपचार किया जा रहा है और केवल गंभीर मरीजों के मामलों में ही इन जांचों का सहारा लिया जा रहा है।


मरीज की स्थिति पर सब निर्भरः


हालांकि अस्पतालों, चिकित्सकों व सरकार के अनुसार सभी संक्रमितों को इन परीक्षणों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सीआरपी, एलडीएच, फेरेटिन, पीसीटी, एलडीएच, डी-डाइमर, आइएल-6, ब्लड गैसेस, एएसटी, एएलटी, टी-बिल, क्रेटेनाइन डब्ल्यूबीसी काउंट, न्यूट्रोफिल काउंट, लिंफोसाइट काउंट, प्लेटलेट काउंट
और चेस्ट एक्स-रे इत्यादि कुछ आवश्यक जांचें इंफ्लमेटरी मार्कर हैं, जिनसे आंतरिक अंगों की स्थिति का पता चलता है। यह जांचें कब होनी चाहिए, इसके लिए कोई आदर्श समय नहीं है, किंतु यह मरीज की स्थिति पर निर्भर होता है। वहीं, कुछ चिकित्सकों ने स्वीकार किया कि यदि यह जांचें प्रारंभिक अवस्था में ही करा ली जाएं, तो मरीज को गंभीर स्थिति में जाने से बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामान्य संक्रमण के बाद ठीक हुए मरीजों की भी एहतियात के तौर पर ये जांचें कराई जानी चाहिए, ताकि सुनिश्चित हुआ जा सके कि वे किसी तरह के खतरे में तो नहीं हैं।


अनिवार्य बनाए जाएं यह टेस्ट



कोरोना के निदान और उपचार की आदर्श प्रक्रिया में आवश्यक जांचों की उपयोगिता पर मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल के बायोकेमिस्टीएंड इम्यूनोलॉजी डिपार्टमेंट की विशेषज्ञ डॉ.बरनाली दास
अपने अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंची कि कुछ जांचें संक्रमण की शुरुआती अवस्था से ही करा लेनी चाहिए। इन्हें अस्पताल के एडमिशन प्रोटोकॉल (भर्ती की प्रक्रिया) में शामिल किया जाना चाहिए ताकि शरीर के अंदरूनी अंगों और प्लेटलेट्स की स्थिति पर नजर रखी जा सके। उनके अनुसार इन जांचों को प्रारंभिक काल में ही करा लेना चाहिए ताकि इनके अनुरूप उपचार को गति दी जा सके:

1.सीआरपी(सी रिएक्टिव प्रोटीन)
2.एलडीएच (लेक्टेट डिहाइड्रोजेनेस)
3.फेरेटिन, पीसीटी (प्रोकेल्सीटोनिन)
4.एलडीएच
5.डी-डाइमर
6.आइएल-6
7.ब्लड गैसेस
8.एएसटी
9.एएलटी
10.टी-बिल
11.क्रेटेनाइन डब्ल्यूबीसी काउंट
12.न्यूट्रोफिल काउंट
13.लिंफोसाइट काउंट
14.प्लेटलेट काउंट
15.चेस्ट एक्स-रे




1. कम से कम आइसीयू के सभी कोविड मरीजों की तो यह जांचें कराईही जानी चाहिए। मरीज की रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद भी फेफड़ों का सीटी स्कैन कराया जाना चाहिए। यदि उनमें किसी भी प्रकार के लक्षण नजर आते हैं, तब भी यह जांचें करानी चाहिए।



2. जांचे कब कराई जाए, इसके लिए कोई आदर्श समय नही है। यह मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है। हां, ऑक्सिजन लेवल 94 से नीचे आने पर विभिन्न जांचे कराई जाती है।



3. आंतरिक रक्तस्राव का असर लिवर व शरीर के अन्य हिस्सों पर पड़ता है इसलिए मरीज को इससे बचाया जाना चाहिए। ऑक्सीजन की मात्रा 94 फीसद से कम होने पर डी-डाइमर और अन्य आवश्यक जांचें अवश्य कराई जानी चाहिए।



क्यों जरूरी है जांच




डी-डाइमर टेस्ट



डी-डाइमर एक तरह का प्रोटीन है, जो कोरोना मरीजों के फेफडे में संक्रमण या सूजन के चलते बढ़ जाता है। इस जांच से यह पता चलता है कि खून गाढ़ा तो नहीं हो रहा। खून गाढ़ा होकर थक्का बनने से मरीजों की मौत भी हो सकती है, इसीलिए खून पतला करने की दवाएं दी जाती हैं। इस जांच से यह भी पता चलता है कि रक्त के थक्का जमने की संभावना कितनी है। थक्का होने से फेफडे और धमनी में ब्लॉकेज हो सकता है और फेफडे की कार्यक्षमता प्रभावित हो सकती है।

आइएल-6


इसे इंटरल्यूकिन-6 कहते हैं । फेफड़े में सूजन लाने वाले साइटोकाइन स्टार्म की वजह आइएल-6है। इससे फेफडे के टिश्यू क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।


पीटी, एपीटीटी



पीटी यानी प्रोथॉम्बिन रक्त का थक्का होने पर या आंतरिक हिस्सों में रक्तस्राव के खतरे का पता लगाने के लिए यह जांच कराई जाती है। एक्टिवेटेड पार्सियल थ्रांबोप्लास्टिन टाइम, एपीटीटी नामक जांच भी इससे जुड़ी होती है।


सीआरपी, एलडीएच व फेरेटिन सी रिएक्टिव प्रोटीन




सीआरपी, एलडीएच व फेरेटिन सी रिएक्टिव प्रोटीन आंतरिक अंगों में सूजन पता करने की जांचें हैं। कोशिकाएं टूटने की वजह से संक्रमण के मरीजों में सीआरपी का स्तर बढ़ा हुआ मिलता है।

2021-04-21

prp therapy for hair in hindi | prp therapy kya hai | platelet rich plasma in hindi

प्लेटलेट रिच प्लाज्मा थेरेपी के बारे मे इन हिन्दी या पीआरपी थेरेपी क्या होता है ?


बालों से संबंधित समस्याओं में कारगर है प्लेटलेट्स रिच प्लाज्मा थेरेपी। इसे आजमाकर लौटाई जा सकती है बालों की बसूरती...


आजकल लोग बालों से संबंधित कई
समस्याओं से परेशान रहते हैं। गंजापन, बाल
झड़ना, बालों का अत्यधिक महीन हो जाना
बालों से संबंधित सबसे सामान्य समस्याएं
हैं। अगर आप भी ऐसी ही किसी समस्या से
जूझ रहे हैं तो पीआरपी थेरेपी आजमा सकते
हैं। इसमें किसी बाहरी या कृत्रिम चीज का


इस्तेमाल नहीं किया जाता है, बल्कि इसमें
इस्तेमाल होने वाले प्लेटलेट्स रिच प्लाज्मा
(पीआरपी) को उपचार कराने वाले व्यक्ति के
रक्त से ही तैयार किया जाता है। कुछ स्वास्थ्य
विशेषज्ञों का मानना है कि इससे प्राकृतिक रूप
से बालों का विकास होता है। यह जानने के
लिए कि वास्तव में यह तकनीक बालों को
उगाने में कितनी कारगर है, इस पर अभी भी
शोध जारी हैं।

ये है पीआरपी थेरेपी: पीआरपी थेरेपी एक
बायोलॉजिकल उपचार है। इसमें जिस व्यक्ति
का उपचार किया जाता है, उसके रक्त को ही

प्रोसेस करके प्लेटलेट्स रिच प्लाज्मा यानी
पीआरपी तैयार किया जाता है। इस तकनीक
का इस्तेमाल पिछले कई सालों से चोटिल
लिगामेंट्स, टेंडंस और मांसपेशियों के उपचार
में हो रहा है, लेकिन हाल ही के कुछ वर्षों
में बालों के उपचार और चेहरे की त्वचा को
झुर्रियों से मुक्त करने में किया जा रहा है।
पीआरपी के इंजेक्शन स्कॉल्प (खोपड़ी) में
लगाने से प्राकृतिक रूप से बालों का विकास
होता है। इससे हेयर फॉलिकल की ओर रक्त
का प्रवाह बढ़ता है, जिससे बालों की मोटाई
बढ़ती है। कभी-कभी बेहतर परिणाम पाने के
लिए इसके साथ दूसरी हेयर गेन प्रोसीजर या
दवाइयों का भी इस्तेमाल किया जाता है।

थेरेपी की प्रक्रिया : सबसे पहले सामान्य
एनेस्थीसिया से प्रभावित क्षेत्र को
सुन्न कर दिया जाता है और फिर
माइक्रो नीडिल्स की सहायता
से पीआरपी को सिर के उन
भागों में इंजेक्ट किया जाता
है, जहां उपचार किया जाना
है। पीआरपी को प्रभावित
क्षेत्र पर डारोलर के द्वारा
भी इंफ्यूज किया जाता है।
डारोलर का प्रयोग करने
से पहले त्वचा पर सुन्न
करने वाली सामान्य
क्रीम लगा दी
जाती है। इस
प्रक्रिया को पूरा
करने के लिए


कई सिटिंग्स की जरूरत होती है। इस उपचार
से न सिर्फ बालों की ग्रोथ बढ़ती है, बल्कि
हेयर फॉलिकल्स भी मजबूत होते हैं। सुइयां
चुभाने और रक्त निकालते समय
दर्द महसूस नहीं होता है, क्योंकि
उस भाग को सुन्न कर दिया
जाता है।

साइड इफेक्टसः पीआरपी
थेरेपी में किसी भी बाहरी
चीज का इस्तेमाल नहीं
होता है। इसलिए साइड
इफेक्ट्स होने का खतरा
कम होता है। रक्त से
तैयार पीआरपी में श्वेत
रक्त कणिकाएं काफी
मात्रा में होती हैं, जिससे
संक्रमण की आशंका
काफी कम होती है और
एलर्जी भी नहीं होती है।

2021-04-20

interstitial lung disease in hindi | interstitial lung disease kya hai | treatment | symptoms

Interstitial Lung Disease 

(इंटरस्टीशियल लंग डिजीज)

इंटरस्टीशियल लंग डिजीज, लक्षण, उपचार इन हिन्दी या इंटरस्टीशियल लंग क्या होता है?


 कई बीमारियों का समूह है इंटरस्टीशियल लंग डिजीज। उपचार और आहार-विहार को अपनाकर पाया जा सकता है इसमें नियंत्रण...



इंटरस्टीशियल लंग डिजीज (आई.एल.डी.) दो सौ से अधिक रोगों के समूह को नाम दिया गया है, क्योंकि
यह सभी क्लिनिकल, रेडियोलॉजिकल और पैथोलॉजिकल विशेषताओं को साझा करती हैं। इंटरस्टीशियल लंग
डिजीज में थकावट, सूखी खांसी और सांस फूलने जैसे लक्षण पाए जाते हैं। इसमें चेस्ट एक्सरे में फेफड़े में धब्बे
तथा लंग फंक्शन टेस्ट में फेफड़े की कार्य क्षमता कम दिखाई देती है। इंटरस्टीशियल लंग डिजीज के निदान
में मरीज के लक्षणों की जानकारी, शारीरिक परीक्षण, चेस्ट एक्सरे, सीटी स्कैन तथा फेफड़ों की कार्य क्षमता देखी
जाती है।

दो भागों में बंटी होती हैं बीमारियां:

इंटरस्टीशियल लंग डिजीज़ को दो भागों में बांटा गया है। एक वे, जिनमें कोई न कोई कारण का पता चलता है
(जैसे पर्यावरणीय एवं औद्योगिक
प्रदूषण, ऊतक रोग आदि) और
दूसरा जिसमें विस्तारपूर्वक जांच के
बाद भी कारण का पता नहीं चलता
है। पहले समूह को नॉन आई.पी.
एफ. इंटरस्टीशियल लंग डिजीज
(आई.एल.डी.) तथा दूसरे को
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
(आई.पी.एफ.) कहते हैं।

लगातार बढ़ रही संख्या : भारत में
आई.एल.डी. के रोगियों की संख्या
लगातार बढ़ रही है। धूमपान, वायु
प्रदूषण तथा ऐसे व्यवसाय जिनमें धूल
व धुआं अधिक मात्रा में निकलता हो,
के कारण बीमारी बढ़ रही हैं। इसके
साथ ही कबूतर व कुछ अन्य पशु-
पक्षियों के साथ रहना व कूलर का
इस्तेमाल करना भी इसमें शामिल है।

ज्ञात नहीं हैं कारणः इडियोपैथिक
पल्मोनरी फाइब्रोसिस में बिना किसी
ज्ञात कारण के फेफड़े में फाइब्रोसिस
(फेफड़े की सिकुड़न) हो जाती है।'
धीरे-धीरे फेफड़ों का आकार छोटा
हो जाता है और सूखी खांसी आती है।
बीमारी बढ़ने पर फेफड़े की संरचना
मधुमक्खी के छत्ते जैसी हो जाती है।

लक्षणों में है काफी समानता: टीबी,
अस्थमा और फेफड़े की फाइब्रोसिस के
लक्षणों में बहुत समानता है। इसलिए
इसमें आपस में अंतर कर पाना
चिकित्सकों के लिए भी कठिन होता है।
चिकित्सक रोगी से विस्तृत जानकारी
प्राप्त करके इन बीमारियों की पहचान
कर सकते हैं। इडियोपैथिक पल्मोनरी
फाइब्रोसिस के अधिकतर मरीज उम्र
में 40 वर्ष से अधिक के होते हैं और
उनमें सांस फूलने की तकलीफ बीमारी
के साथ धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, जो
कि अस्थमा रोगसे विपरीत है। अस्थमा
के मरीज ज्यादातर कम उम्र के होते हैं
तथा लगातार सांस फूलने के बजाय
इन मरीजों में कभी-कभी सांस फूलती
है। दूसरी तरफ टीबी के मुख्य लक्षणों
में बुखार, खांसी, बलगम, बलगम में
खून आना आदि शामिल है। पल्मोनरी
फंक्शन टेस्ट (पी.एफ.टी.) के जरिए

दमा और फेफड़े की फाइब्रोसिस में
अंतर आसानी से किया जा सकता है।
फेफड़े की फाइब्रोसिस के सही परीक्षण
के लिए फेफड़े का सी.टी. स्कैन भी
कराया जाता है। अपने देश में एक्सरे
के हर धब्बे को टीबी समझा जाता है,
जबकि ऐसा है नहीं।

फेफड़े का ट्रांसप्लांट है अंतिम
विकल्पः ऐसे मरीजों में अचानक
सांस बढ़ जाने पर एंटीबायोटिक का
कुछ दिन का कोर्स दिया जा सकता है।
इसके अलावा धूमपान का सेवन बंद
करना, धूल, धुएं से दूर रहना, योग,
प्राणायाम करना, समय-समय पर
टीकाकरण करवाना तथा लंबे समय
तक ऑक्सीजन देना भी लाभकारी
पाया गया है। गंभीर स्थिति में फेफड़े
का प्रत्यारोपण एक मात्र विकल्प रह
जाता है। अच्छी बात यह है कि फेफड़े
का प्रत्यारोपण (लंग ट्रांसप्लांट) अब
भारत में भी कई केंद्रों पर होने लगा है।

सावधानी है बचाव

कुछ सावधानियों को अपना
कर हम इस बीमारी पर नियंत्रण
पा सकते हैं। विश्व स्तर पर
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
के मरीज, इंटरस्टीशियल
लंग डिजीज के कुल रोगियों
के 30 फीसद होते हैं, जबकि
भारतीय इंटरस्टीशियललंग
डिजीज रजिस्ट्री के अनुसार
इंटरस्टीशियल लंग डिजीज के कुल
मामलों में इडियोपैथिक पल्मोनरी
फाइब्रोसिस 13 फीसद पाया गया है।
इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइब्रोसिस
के लक्षणों में सूखी खांसी, सांस लेने
में तकलीफ, भूख न लगना और
थकान शामिल है और ये लक्षण टीबी
और अस्थमा में भी पाए जाते हैं।


2021-03-30

rashes kaise thik kare | rashes ka ilaj in hindi | rashes ka gharelu ilaj | rashes home treatment

स्किन रैशेज की समस्या का घरेलु उपचार इलाज और जांघों Rashes को ठीक करने के उपाय या स्किन रैशेज ट्रीटमेंट इन हिंदी 


जांघो के बीच में होने वाले रैशेज गर्मी के मौसम की सबसे आम परेशानियो में से एक है। कैसे घरेलू उपायों की मदद से इस परेशानी से कैसे छुटकारा पाए।


गार्मियों का मौसम आया नहीं कि महिलाओं में त्वचा संबंधी सौ परेशानियां शुरू हो जाती हैं। इन परेशानियों की एक प्रमुख वजह है, पसीना। परेशान करने वाली गर्मी के बीच शरीर से लगातार बहता पसीना चिपचिपा और बदबूदार तो होता ही है, साथ ही इससे कई तरहके  फंगल इंफेक्शन भी हो जाते हैं। खासतौर से महिलाओं की जांघों के बीच रैशेज होना गर्मी के मौसम की एक आम समस्या है। जिन महिलाओं या युवतियों की जांघे सामान्य से थोड़ी भारी होती हैं, उन्हें तो और ज्यादा परेशानी होती है। ऐसे में रह-रहकर होने वाली खुजली से असहजता और बढ़ जाती है। बार-बार खुजाते रहने से त्वचा छिल जाती है और खरोंच के निशान तक पड़ जाते हैं, जो सूखने के बाद और ज्यादा दर्द पैदा करते हैं।कई बार स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि चलने और उठने-बैठने तक में बहुत दिक्कत होने लगती है।


क्या कहते हैं एक्सपर्ट

डॉक्टरी भाषा में इसे टिनिया क्रूरिस के रूप में परिभाषित किया गया है, जो एक तरह की दाद या खुजली होती है। सामान्यतः महिलाओं की जांघों के साथ-साथ यह उनके प्रजनन अंगों तक भी फैल सकती है, जिसका समय रहते इलाज किया जाना बेहद जरूरी है। हालांकि इसके लिए डॉक्टर की सलाह पर ही दवा लेनी चाहिये, जो एंटी फंगल ट्रीटमेंट के तहत कुछेक क्रीम, पाउडर आदि से जल्दी ठीक भी हो जाता है। इसके अलावा आप कुछ घरेलू उपायों की मदद से भी इस प्रकार के फंगल इंफेक्शन से छुटकारा पा सकती हैं।


नारियल तेल का कमाल

जब हम चलते हैं, तो हमारी जांघों की त्वचा आपस मेटकराती है और गर्मी में पसीने की चिपचिपाहट से या बेहद तंग कपड़े पहनने की वजह से उस जगह पर रैशेज पड़ने लगते हैं, जो बहुत पीड़ादायक होते हैं। प्रभावित हिस्से पर अगर नारियल का तेल या अन्य कोई भी सौम्य एवं ठंडा तेल लगाकर हल्के हाथ से मालिश की जाए तो रैशेज से राहत मिलती है। रात में सोने से पहले अगर यह मालिश की जाए तो ज्यादा लाभ मिलता है।


नमी रखे बरकरार वैसलीन


नारियल तेल के अलावा पेट्रोलियम जेली यानी वैसलीन को प्रभावित हिस्से पर लगाने से भी बहुत आराम मिलता है। वैसलीन भी तेल की तरह ही प्रभावित हिस्से की नमी को बरकरार रखती है और त्वचा को सूखने नहीं देती।

एलोवेरा का फायदा


सौंदर्य उत्पादों में एलोवेरा का इस्तेमाल प्रमुखता से किया जाता है, लेकिन त्वचा पर पड़ने वाले इस प्रकार के रैशेज में भी यह बहुत प्रभावी होता है। एलोवेरा जेल में ल्यूपियोल नामक फैटी एसिड होता है, जो रैशेज में होने वाले दर्द से राहत देने में सहायक होता है। इसे रात को सोने से पहले प्रभावित हिस्से में लगाने पर सुबह तक चमत्कारी रूप से आराम मिलता है।

साबुन भी बदलें

गर्मियों में बार-बार नहाने का दिल करता है और पसीने की बदबू से छुटकारा पाने के लिए बार-बार साबुन लगाने से त्वचा शुष्क हो जाती है। हमेशा सौम्य किस्म के साबुन का ही इस्तेमाल करे, जो त्वचा के पीएच बैलेंस को तो बनाए रखे ही, साथ ही हानिकारक बैक्टीरिया से भी सुरक्षा प्रदान करे। यदि ज्यादा पसीना आता है, तो दिन में दो बार माइल्ड साबुन से त्वचा को साफ करें और अच्छी तरह से पोंछ कर कपड़े पहनें।


पाउडर भी देता है फायदा


पसीने से पैदा होने वाली नमी से बैक्टीरिया तेजी से पनपते हैं, जिससे इंफेक्शन काखतरा और बढ़ जाता है। इससे बचने के लिए प्रभावित हिस्सों पर अच्छी तरह टेलकम पाउडर लगाएं। पाउडर पसीने को सोख लेगा और आपको रैशेज भी नहीं होंगे। वैसे आजकल फंगल इंफेक्शन से बचने के लिए मेडिकेटेड पाउडर भी बाजार में उपलब्ध हैं।


इन्हें भी आजमाएं


गर्मी का मौसम ज्यादा नमी वाला और उमस से भरा होता है, जिसमें पसीना लगातार आता रहता है। इससे बचने के लिए आप कुछ आसान टिप्स आजमा सकती हैं।

• जहां तक कोशिश हो ढीले, हल्के रंगों के सूती कपड़े ही पहनें ताकि पसीना आने पर वह जल्दी ही सूख जाए और

शरीर को हवा लगती रहे।

• लंबे समय तक टाइट फिटिंग जींस या इसी प्रकार की अन्य ड्रेसेज पहने रखने से खासतौर से जांघों को हवा

नहीं लग पाती और रैशेज हो जाते हैं।

• इसी प्रकार अगर शॉर्ट ड्रेस पहन रही हैं, तो उसके नीचे साइकिलिंग शॉर्ट्स जरूर पहनें।

• नहाने के बाद अपनी जांघों वाले हिस्से और उसकी आस-पास की जगह को अच्छी तरह से साफ करें।

• ध्यान रखें कि इस दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला तौलिया एकदम साफ हो और उसे आपके अलावा कोई

और इस्तेमाल ना करता हो।

•  प्रभावित हिस्से के सूखने के बाद ही कोई तेल, क्रीम या कोई पाउडर लगाएं और फिर कपड़े पहनें।

• यह सही है कि दिन के समय में आप जांघों जैसे हिस्सों को बहुत ज्यादा खुला नहीं रख सकती है, लेकिन रात को

सोते समय जहां तक संभव हों, प्रभावित हिस्से में अच्छे से हवा लगने दें।

• अपने अंडरगार्मेंट्स अच्छी तरह से धोएं और उन्हें पूरी तरह से सूखने पर ही पहनें।

• प्रभावित हिस्सों पर अल्कोहल युक्त टोनर बिलकुल ना लगाएं।

• इस स्थिति में गुलाब जल ठंडक प्रदान करता है।

2021-03-19

jod dard ka tel | jodo ka dard oil | joint pain ointment | joint pain (Jod Dard) ki dawa

जोड़ों का दर्द की दवा या जोड़ों के दर्द तेल



जोड़ों के दर्द से आपको दवाओं से कुछ दिनों के लिए आराम मिल सकता है, लेकिन दवा का प्रभाव खत्म

होते ही आपको दोबारा दर्द का सामना करना पड़ेगा। पर 'अरोमा ऑयल्स' के जरिए आपको इससे लंबे

समय के लिए फायदा मिल सकता है। इन तेलों का

उचित प्रकार से प्रयोग करें।

जोड़ों के दर्द में अरोमाथेरेपी फायदेमंद होती है। इन

प्राकृतिक तेलों की खुशबू का प्रभाव सीधे हमारे

मस्तिष्क पर पड़ता है, जिससे दर्द में राहत मिलती है।

यह प्रभावित हिस्से के रक्त संचार को बेहतर बनाते हैं

और सूजन कम करते हैं।


कायेन पेपर ऑयल: इसकी कुछ बूंदों को

नारियल तेल के साथ मिलाएं। तेल का प्रयोग दिन में

दो से तीन बार करें। दो से तीन हफ्ते लगातार इस्तेमाल

से फायदा होगा।


लेमनग्रास ऑयलः राहत पाने के लिए इस ऑयल

को अलग-अलग तरीकों से प्रयोग किया जा सकता है।

इसके लिए पानी को उबालकर उसमें कुछ बूंदें

लेमनग्रास तेल की डालें और प्रभावित हिस्से में भाप

लें। इससे आपको काफी राहत मिलेगी।

लोबान तेलः इस तेल को ऑलिव ऑयल के साथ


मिलाकर सूजन वाले हिस्से में लगाएं। इससे सूजन

कम होगी।


पिपरमेंट ऑयलः तेल की पांच से आठ बूंदों को

दो चम्मच गुनगुने नारियल तेल में मिलाकर तुरंत जोड़ों

पर लगाएं। आप नारियल तेल की जगह किसी दूसरे

तेल का भी प्रयोग कर सकती हैं।


रोजमेरी ऑयलः इस तेल को प्रभावित हिस्से पर

लगाएं। यह तेल रोजमेरिनिक एसिड से युक्त होता है,

जो कि दर्द को कम करने में काफी प्रभावी है।

जूनिपर ऑयलः इसकी कुछ बूंदों को लोशन या

क्रीम में मिलाकर हर दिन प्रयोग कर सकती हैं।


क्लोव ऑयल: इस तेल को जोजोबा ऑयल के

साथ मिलाकर प्रभावित हिस्से पर लगाएं।


जिंजर ऑयल: आप इसे लैवेंडर और लेमनग्रास

तेल के साथ मिलाकर, प्रभावित हिस्से पर लगाकर

राहत पा सकती हैं।


लैवेंडर ऑयलः इसे सीधे प्रभावित हिस्से पर

लगाएं। इसमें तीव्र खुशबू आती है, जिससे दर्द को दूर

करने में मदद मिलती है। इस तेल को जोड़ों पर लगाते

हुए हमेशा गोलाकार में मसाज करें।